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कविता

कहाँ लौं बरनौं सुंदरताई

सूरदास


कहाँ लौं बरनौं सुंदरताई।
खेलत कुँवर कनक-आँगन मैं, नैन निरखि छबि पाई।
कुलही लसति सिर स्यामसुँदर कैं, बहु बिधि सुरंग बनाई।
मानौ नव घन ऊपर राजत, मघवा धनुष चढ़ाई।
अति सुदेस मृदु हरत चिकुर मन, मोहन मुख बगराई।
मानौ प्रगट कंज पर मंजुल, अलि-अवली फिरि आई।
नील सेत अरु पीत लाल मनि, लटकन भाल रुलाई।
सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु, भौम सहित समुदाई।
दूध-दंत-दुति कहि न जाति कछु, अद्भुत उपमा पाई।
किलकत-हँसत दुरति प्रगटति मनु, घन में बिज्जु छटाई।
खंडित बचन देत पूरन सुख, अलप-अलप जलपाई।
घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित, सूरदास बलि जाई।।


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हिंदी समय में सूरदास की रचनाएँ